डाॅ अनीता पंडा 'अन्वी की लघुकथाएं
इश्क नहीं आसान
"बिटिया! ये खद्दर का पुराना तिरंगा इतना सम्भाल कर क्यों रखा है? हर साल पंद्रह अगस्त को इसे ही लगाती हो। इस बार नया झंडा ले लेते हैं,"रमा की अलमारी साफ़ करते हुये इन्द्रा मौसी ने पूछा।
" मौसी! आप हमेशा यही प्रश्न पूछती हैं? मेरा जबाव एक ही होता है कि यही झंडा फहरायेंगे।"
"बिटिया! हर बार आप मुझे टाल देती हो पर आज बताना ही पड़ेगा कि इस झंडे में क्या खास है? मुझे मौसी कहती हो न फिर काहे का संकोच?"
मौसी की बात पर एक लम्बी साँस लेते हुये रमा ने बताया,"मौसी! यह किसी की निशानी है, जो मुझे बहुत अच्छा लगता था। उसे भी मैं अच्छी लगती थी पर वह किसी और को मुझसे अधिक प्यार करता था। चला गया उसके पास। "
"फिर क्या हुआ बिटिया?"
"होना क्या था मौसी? वह उसके पास सदा के लिये चला गया। जाने से पहले यह तिरंगा दे गया।"
"आपकी उनसे कभी मुलाकात नहीं हुयी?"
"ना मौसी! जब वह आया, तो तिरंगे में लिपटा हुआ।"
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Barbra Rachko
बोनस
हेलो दीदी!
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"हाँ, यहाँ ससुरजी का सब काम अच्छी तरह से पूरा हो गया। लोग भी चले गये। अब जाकर थोड़ा आराम मिलेगा," फोन पर मधु अपने दीदी से बात कर रही थी। उसी समय राज,"मधु! मधु!" पुकारता कमरे में आया।
"अच्छा दीदी! बाद में फोन करूँगी," कहकर फोन रख दिया। बोली,"क्या बात है राज?"
"देखो, इस महीने से थोड़ी-थोड़ी बचत करना शुरू करो।"
"क्यों? बाबूजी के जाने के बाद उनके इलाज और दवाओं पर जो खर्च हो रहा था, वह तो बचेगा ही। अब आपकी पूरी तनख्वाह घर के लिए ही होगी। मैं सोच रही थी कि इतने वर्षों में अपने लिये छोटा-सा गहना नहीं खरीदा, खरीदूँगी। कहीं घूमने भी जायेंगे। जायेंगे न," मधु ने पूछा।
राज ने थके हुये शब्दों में कहा,"नहीं मधु! यह सम्भव नहीं है। तनख्वाह तो पूरी आयेगी पर आमदनी बन्द हो गयी।"
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बन्दिनी
"देखो न मनीष, रद्दी वाला हिन्दी के समाचार-पत्र के इतने कम पैसे दे रहा है," गुस्से में रेखा ने कहा।
"बरामदे में बैठे मनीष ने कहा, "कितनी बार कहा है कि अंग्रेजी समाचार पत्र काफी है। तुम्हें तो हिन्दी ही पढ़नी है।"
"माना की अंग्रेजी समाचार स्टेटस सिम्बल बन गया है पर हम हिन्दी भाषी ही हिन्दी का समाचार पत्र नहीं पढ़ेंगे, तो कौन पढ़ेगा?"
"तुम पढ़ना जारी रखो रेखा। हाँ, रद्दी वाला जितने पैसे दे रहा है, ले लो।कम से कम घर का एक कोना साफ़ हो जायेगा।" मनीष की बात पर रद्दीवाला बोला,
" दीदी, हम भी क्या करें। रद्दी खरीदने वाले अंग्रेजी समाचार पत्र का अधिक पैसा देते हैं और हिन्दी का कम। जल्दी बतायेँ कि इन हिन्दी समाचार पत्रों का क्या करना है? वैसे भी घर में पड़े-पड़े ये खराब हो जायेंगे। इससे अच्छा है कि इन्हें निकाल दीजिये।"
"उफ़! तू भी शुरू हो गया।"
"रेखा! अब दे भी दो,"
मनीष ने कहा। रेखा झुँझलायी और हताशा से कहा,"अब मैं क्या बताऊँ? इन्हें ले जा। देश तो आजाद हो गया पर हिन्दी को चक्रव्यूह से कब मुक्ति मिलेगी?"
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परिचय
स्वतंत्र लेखन, हिन्दी उद्घोषिका दूरदर्शन शिलांग, मेघालय, आकाशवाणी पूर्वोत्तर सेवा शिलांग, शिक्षाविद (अवकाश प्राप्त),
12पुस्तकें प्रकाशित, राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान 2015, आकाशवाणी दिल्ली के विदेश प्रसारण विभाग मंत्रालय द्वारा संगीत रूपक नौह का लिकाई के लिए प्रथम पुरस्कार तथा देश-विदेश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु प्रस्तुतियाँ, सम्मानित।
सादर धन्यवाद आदरणीय
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक लघुकथा। हर विषय संवेदनशील है। बहुत बहुत बधाई 🙏💐
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद आदरणीय
हटाएंदोनों लघुकथाएं बहुत प्रभावशाली हैं। अनीता जी को बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय
हटाएंगुरूजी नमन आपकी सोच को....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लघुकथाएं ।लघु होते हुए भी अंत में बहुत कुछ सोचने को विवश कर देतीं हैं।
जवाब देंहटाएंबोनस समझ में नहीं आई।
जवाब देंहटाएंपिताजी को मिलने वाली पेंशन
हटाएंतीनों लघुकथाओं ने मन पर अमिट छाप छोड़ी है। बहुत- बहुत बधाई 💐💐
जवाब देंहटाएंआभार आपका आदरणीय
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