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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 सितंबर, 2024

मौत उनके लिए नहीं फ़िलिस्तीनी कविताएं -नौ

 

मेरी आवाज़, मेरी खुशबू, मेरा जिस्म


तौफ़ीक़ जियाद


जहाँ जमी हैं मेरी जड़ें 

मैं लौटूंगा वहीं 

बस, इन्तज़ार करो मेरा 

मैं ज़रूर लौटूंगा


चट्टानों की दरारों में 

काँटों में, पत्तियों में 

रंगीन तितलियों में 

गूंज में, सायों में 

जाड़े की सोंधी मिट्टी में 

गर्मी की धूल में 

मस्त हिरनियों के रास्तों में 

चिड़ियों के घोंसलों में


गरजता तूफ़ान दिखायेगा रास्ता 

मेरी नसों में धड़कती है 

मेरे वतन की अज़ान 

पुकारती है हर घड़ी 

हाँ, मैं जरूर लौटूंगा


फूलों रखना तब तक बरक़रार 

मेरी आवाज़, मेरी खुशबू, मेरा जिस्म

०००




चित्र 

आसमा अख़्तर 









कोई कैसे करे बर्दाश्त


ऐ मेरे वतन

ऐ मेरे घर

ऐ मेरे लुटे ख़जाने

ऐ मेरे ख़ूनी इतिहास


जहाँ दफ़्न हैं मेरे अब्बा 

उनके वालिद 

उनके भी पुरखे 

पहुँच नहीं सकता उन तक 

कैसे कर लूँ बर्दाश्त 

कैसे कर दूँ माफ़ 

जकड़ दिया जाऊँ शिकंजे में 

फिर भी, 

नहीं कर पाऊँगा माफ़


उगलते थे सोना जो खेत

पड़े हैं उजाड़, वीरान आज 

पड़ी हैं यहाँ वहाँ 

हड्डियाँ पत्थरों के साथ 

जूझ रहे हैं अब भी 

कुछ मर्दाने 

कुछ दीवाने 

हौसला है उन दरिन्दों को फाड़ खाने का 

ख़ून पी जाने का 

कुछ न कहो, कुछ भी नहीं 

मक़बरों तक को नहीं बख़्शा 

रौंद डाला उन्हें भी बूटों तले

०००



सतह से नीचे



मुझे कुछ भी न बताओ 

कुछ भी नहीं


मैं आ गया हूँ उस जगह 

जहाँ न पीछे कुछ था 

न आगे कुछ होने की गुंजाइश 

जहाँ तौला जाता है एक एक लफ़्ज़ 

साया पीछा करता है साये का 

खुदाई हुक्म 

बदल जाते हैं सुविधाजनक क़ानून, धर्म में 

बंदा नेस्तनाबूद कर देता है खुदा को 

बस भी करो, 

मुझे कुछ और न बताओ


मैं आया हूँ वहाँ से 

जहाँ एक बाग सुलगती है सीने में, 

तेजाब बहता है विद्रोही नसों में, 

सड़कें उफनती हैं 

बेहिसाब आदमी औरतों से 

एक कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला, 

जहाँ पेड़ लहरा रहे हैं 

वतन के झंडे जैसे 

जायेंगे यहाँ से भला कहाँ, 

जहाँ हर हादसा 

ललकारता है और कुर्बानी के लिए, 

जहाँ शिकायत 

मानी जाती है कमजोरी,

जहाँ के बच्चों, शायरों 

और मजदूरों की आवाज़ें 

रौशन करती हैं दिलों को- 

जागती हैं आस, 

मत बतलाओ मुझे कुछ और


देखी है मैंने ज़िन्दगी भरपूर 

जी है मैंने ज़िन्दगी भरपूर


क्या जो दिख रहा है 

उसने बनाया बेवकूफ़ मुझे 

शायद बूढ़ा हो रहा हूँ 

रोओगे तो मरोगे 

जल्दी करो 

क्योंकि सच यह है 

कि जल्दी कुछ भी नहीं बदलता 

वक़्त बढ़ता जाता है आगे 

धीरे धीरे

हमेशा

०००

कवि 

तौफ़िक जियाद-आधुनिक फ़िलिस्तीनी कविता के एक महत्तवपूर्ण कवि।

०००


अनुवादक 

राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

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