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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

18 सितंबर, 2024

अरुण यादव की कविताएं

 

सैल्फ़ी


जीवन में इतना दुख

कि तुम्हारी कृत्रिम मुस्कान भी

छिपा नहीं पा रही उसे


तुम्हारी मुस्कुराहट से ढकी उदासी

टपक रही है आँखों से

लेकिन अनदेखा किये जा रहे हो तुम


हालात के थपेड़ों से घबरा कर

दुख को चकमा देने की असफल कोशिश है  तुम्हारी सैल्फ़ी


आख़िर स्वीकार क्यों नहीं कर लेते

कि दुखी हो तुम

शायद दुख के स्वीकार से ही निकले

दुख से मुक्ति का कोई रास्ता 


तुम्हारी सारी कोशिश 

दुखी न होने की नहीं है

बल्कि दुखी दिखाई न देने की है


कविता में बार-बार प्रयोग किया गया शब्द "तुम" 

"हम" भी पढ़ा जा सकता है।

०००











कुछ इच्छाएं/घोषणाएं 



इतने चुपके से

गुज़र जाय यह सफ़र

कि छूटे न कहीं भी

क़दमों के निशां

अमर होना बड़ा बोरियत ख़्याल है


किसी की स्मृति का हिस्सा बनूं

या मूर्ति बन खड़ा रहूं चौराहे पर

परिंदों की बीट से घिन है मुझे 


पराजय का भय 

उसी दिन मिट गया

जिस दिन 

जीतने की इच्छा खत्म हुई थी


"प्रतिष्ठा" 

या "महान" शब्द का बोझ ढोना कष्टकारी है 

मेरे जैसे मामूली आदमी के लिए 

मैं अपने साधारण प्रदेश का राजा हूं


मेरे गाये गीत या मेरी कविताएँ 

जमा पूंजी है मेरे जीवन की

किसी अंबानी अदाणी  से

कम थोड़ी है ये संपत्ति 


निंदा या प्रशंसा के प्रभाव को

झटकार देता हूँ ऐसे

जैसे पूंछ हिलाकर कोई श्वान

उड़ा देता है मक्खियाँ 

निंदा या प्रशंसा के शब्दों से 

हिंसा की बू आती है मुझे


किसी अंजान जगह में 

अजनबी की तरह

चौराहे की गुमटी में

अदरख वाली चाय पीने का सुख

सौंपना चाहता हूँ

आने वाली पीढ़ी को। 

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वर्ष 2020 में इंडिया नेटबुक्स से कहानी संग्रह "जड़-ज़मीन प्रकाशित।


6 टिप्‍पणियां:

  1. अरुण यादव की ये अच्छी कविताएं हैं। वे अपनी बात सीधे-सीधे रखते हैं -अभिधा में । लेकिन अपनी बेफिक्री को कुछ नये तरीके से कह रहे हैं। इसलिए वह खास हैं। बधाई और शुभकामनाएं।

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  2. मेरी टिप्पणी को हीरालाल नागर के नाम से छापा जाये।

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  3. सच्चाई बयां करती है कविताएँ। बधाइयाँ

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  4. बहुत ही जीवंत और जरूरी कविताएँ

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  5. शुक्रिया सत्य भाई।

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